Monday, 27 March 2017

ब्रह्मगुप्त

 देश में जन्मे गणितज्ञों में ब्रह्मगुप्त का स्थान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है | गणित के साथ साथ ये खगोल शास्त्र तथा ज्योतिष में भी पारंगत थे |
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के भीनमाल शहर में ईस्वी सन् 598 में हुआ था।
वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे:
1. ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और
2. खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)
‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है इसके साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है । यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक (negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है ।
ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्णयास्पद समीकरणों ( Nx2 + 1 = y2 ) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाले यह प्रथम व्यक्ति थे |
>ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को एक समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया।
>ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
>ब्रह्मगुप्त पाई (pi) (३.१४१५९२६५) का मान १० के वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना।
>ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है, और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, K y2 + 1 = x2 , को भी हल करने का प्रयत्न किया।

ब्रह्मगुप्त का सूत्र :

ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र:

(\tfrac{p + r}{2}) (\tfrac{q + s}{2})

चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र:

\sqrt{(t – p)(t – q)(t – r)(t – s)}.

जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है।

Thursday, 9 March 2017

।। पाई का मान।।


वृत के परिधि तथा व्यास के अनुपात को पाई के रूप व्यक्त किया जाता है जिसका स्थूल मान 3 है, परिमेय संख्या के रूप में मान   22 /7 तथा 3.1416 है तथा अपरिमेय संख्या के रूप में (10)^½ है। इसकी ऐतिहासिक यात्रा वैदिक काल से प्रारंभ होकर वर्तमान में शोधकर्ताओं के लिए और अधिक शोध करने की प्रेरणा देता रहता है। भारत तथा विश्व के सभी गणितज्ञों वृत के परिधि तथा व्यास के अनुपात में रुचि दिखाई तथा कुछ न कुछ नया खोजने का प्रयास किया है परन्तु भारतीय गणितज्ञों ने गणित के क्षेत्र में जो योगदान दिया वो अविस्मरणीय है।

शुल्व-सूत्रों में वृत-संरचना के लिए अनेक नियम निर्धारित किये गये हैं। उनके अनेक विवरणों से पाई के अनेक प्रायः समतुल्य मान ध्वनित होते हैं। शुल्व-सूत्र के पूर्वोक्त उदाहरण से पाई का मान 3. 004 का अनुमान लगाया गया है। मानव शुल्बसूत्र  ( 1800 ई. पू.) से यह मान 3. 1604 द्योतित हुआ है।
पाई का स्थूल मान 3 के लिए —
यूपावटाः पदविष्कम्भाः।
त्रिपदपरिणाहानि यूपोपराणि।।
                        ( बा. शु. सू. - 4. 112. 13)
अर्थात -
यूप या खूँटे का व्यास 1 पद होने पर उसकी परिधि 3 पद होती है।
इस प्रकार पाई का मान 3 इस स्थूल मान का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है
प्रसिद्ध विद्वान आर्किमिडीज़ ( Archimedes 287 - 212 B. C.) ने इसका मान 22 /7 तथा 223/71 अर्थात 3.1428 तथा 3.1408 के मध्य स्वीकृत किया था।

~ आर्यभट्ट :-
इन सभी विवेचना के बाद विश्व में सबसे सुनिश्चित तथा चार स्थानों तक सर्वथा शुद्ध मान को निर्धारित करने का श्रेय गणित के महाविद्वान आर्यभट्ट ( 476 ई. से 540 ई.) को प्राप्त है -
चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम् ।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत-पारिणाहः।।
                  (-आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक - 10)
अर्थात -
अयुतद्वय या 20000 प्रमाण व्यास वाले वृत की परिणाह या परिधि 1000 में 62 गुणित में 104 में 8 से गुणित संख्या को जोड़ने से प्राप्त संख्या आसन्न होती है। इस प्रकार यह संख्या —
( 1000 × 62) + ( 104 × 8)
= 62000 + 832
= 62832
इस प्रकार परिधि /व्यास के रुप में इसका मान —
पाई = 62832 / 20000
      = 3.1416

~ श्रीधराचार्य :-
श्रीधराचार्य ( 750 ई.) ने अपने परिधि निरुपण के प्रसंग में पाई का मान (10)^½ निरुपित किया है —
वृतव्यासस्य कृतेमूलं परिधिर्भवति दसगुणायाः ।
                     (-त्रिशतिका, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक - 45)
अर्थात -
वृत के व्यास की कृति या वर्ग के 10 से गुणित का वर्गमूल परिधि होता है। इससे यह परिणाम निकलता है कि —
परिधि = { 10 ×( व्यास)²} ^½
अतः पाई { (10)^½} = परिधि /व्यास
कुछ प्रसंग में इन्होंने पाई का स्थूल मान 3 मान कर भी गणनाएं की है।

~ महावीराचार्य :-
महावीराचार्य (814 ई. से 880 ई.) ने भी ठीक इसी प्रकार परिधि का निरुपण करते हुए पाई का मान (10)^½ बताया है —
वृत्तक्षेत्रव्यासो दशपादगुणितो भवेत् परिक्षेपः ।
            (-गणितसारसंग्रह, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक - 60)
अर्थात -
वृताकार क्षेत्र के व्यास को 10 के वर्गमूल से गुणित करने पर उसका परिधि प्राप्त होता है
अन्य प्रसंग में
त्रिगुणीकृतविष्कम्भः परिधिः
                         (-गणितसारसंग्रह, श्लोक - 19)
के द्वारा व्यास के तिगुने को स्थूल परिधि बताते हुए स्थूल रूप से पाई का मान 3 भी स्वीकृत किया है।

~ भास्कराचार्य :-
आर्यभट्ट के पश्चात सर्वप्रथम भास्कराचार्य ने उनके मान के विवरण को संक्षिप्त करके इस रुप में प्रस्तुत किया है —
व्यासे भनन्दाग्निहते विभक्ते खबाणसूर्यैः परिधिः स सूक्ष्मः।
अर्थात -
1250 से विभक्त 3927 संख्या को व्यास से गुणित करने पर उस व्यास की सुक्ष्म परिधि प्राप्त होती है। इससे प्राप्त पाई का मान आर्यभट्ट के विवरण का ही संक्षिप्त रुप है —
पाई = (62832 ÷ 16) / (20000÷ 16)
       = 3927 / 1250
       = 3.1416

उन्होंने अगले चरण में पाई का स्थूल मान इस तरह प्रकट किया है —
द्वाविंशतिघ्ने विहृतेsथ शैलेः स्थूलोsथवा स्याद् व्यवहारयोग्यः ।
                 (-लीलावती, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक - 40)
अर्थात -
7 से विभाजित 22 को व्यास से गुणा करने पर उस परिधि का स्थूल मान प्राप्त होता है। इससे प्राप्त
    पाई  = 22 /7
यह मान आर्किमिडिज के मान की अधिकतम सीमा के रुप में आधुनिक गणित में भी प्रचलित है।

अधोलिखित श्लोक का वर्ण कूटांक की दृष्टि से विचार करें.....
"चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभिपाला।
आनूननून्ननन नुन्न नित्यम्।। "
इसका अभिप्राय है कि " आनूननून्नानन नुन्न नित्यम् "  व्यास के वृत की परिधि " चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभिपाल " होती है।

व्यास  =  1  आनूननून्नानन नुन्न नित्यम्
                 000000, 000, 01
परिधि  =   चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभि पाल
                  6 3 5   6 2    9 5 1 4   1 3

पाई = परिधि /व्यास
       = 31415926526 /10000000000
       = 3.1415926526
अर्थात - दशमलव के दस अंक तक पाई का मान इस श्लोक में दिया गया है।

~माधवा ( 1340 ई. - 1425 ई.)
14वीं शताब्दी के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री तथा गणितज्ञ माधवा जिनका जन्म केरल के संगमग्राम (आधुनिक ईरिन्नालाक्कुट्टा) में 1340 ई. में हुआ था —
इनके द्वारा पाई का मान दशमलव के ग्यारह अंकों तक शुद्ध पाया जाता है —

    2827,43,33,88,2333 ÷ 900,00,00,00,000

    = 3. 1415926535922

~शंकर वर्मा ( 1774 ई. - 1839 ई.)
आपने कटपयादि वर्ण कूटांक के प्रयोग द्वारा पाई का मान दशमलव के 17 स्थान तक याद रखने के लिए अपनी रचना "शाद्रत्नमाला" में वर्णन किया है -
भा ( 4) द्रा (2) म्बु (3) धी (9) सी ( 7)
दद्धा ( 9) जा ( 8) नम् (5) गा (3) नी ( 5)
ता ( 3) स्रा ( 2 ) दद्धा ( 9)  स्म ( 5) याद (1)
भू ( 4) पा (1) गीः (3)

पाई = 3. 14159265358979324

~भारती कृष्ण तीर्थ ( 1884 ई. - 1960 ई.)
गोवर्धन पीठ, पूरी के 143 वें शंकराचार्य जगत गुरु स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ जी महाराज जिनका जन्म 14 मार्च 1884 ई. को हुआ जिन्होंने वर्ण कूटांक का प्रयोग कर पाई  का  निकालने का सर्वाधिक सरल तथा रोचक श्लोक प्रस्तुत किया —
पाई /10 का मान :- वर्ण कूटांक का प्रयोग से पाई के 32 अंक तक के मान के लिए श्लोक।

।।  गोपीभाग्यमध्रुव्रात श्रंगिशोदधिसन्धिग।
3  1  4  1  5  9  2  6  5  3  5  8  9  7  9  3
      खलजिविताखाताव गलहालारसंधर।।
2  3  8  4  6  2  6  4  3  3  8  3  2  7  9  2

पाई /10 =

0.31415926535897932384626433832792

इस प्रकार पाई का 32 अंक तक प्राप्त करने के लिए यह श्लोक जिसका पहला पद भगवान् कृष्ण की स्तुति तथा दुसरा पद भगवान् शिव स्तुति एवं पूर्ण श्लोक गणितशास्त्र में पाई का मान सरलता से याद रखने का अद्भुत तरीका है।