Wednesday, 4 October 2017

चंद्रशेखरसिंह सामन्त

चंद्रशेखरसिंह सामन्त (1835 - 1904) ओडिशा निवासी भारतीय ज्योतिषी थे। इन्होने 'सिद्धान्तदर्पण' नामक एक ज्योतिषग्रन्थ की रचना की जो संस्कृत भाषा तथा ओड़िया लिपि में है।
इनका जन्म सन्‌ 1835 में पुरी के पास की खंडपाड़ा नामक एक छोटी रियासत के राजवंश में हुआ था। कुछ वैधानिक कठिनाइयों के कारण राजगद्दी अन्य को मिली तथा इन्होंने अपना जीवन गरीबी में बिताया।

उड़िया साहित्य के साथ साथ इन्हें संस्कृत के व्याकरण, काव्य तथा साहित्य की उच्च शिक्षा मिली। इनके पिता ने, जो स्वयं अच्छे विद्वान थे, इन्हें ज्योतिष का ज्ञान कराया। उड़िया और संस्कृत को छोड़ अन्य भाषाओं का ज्ञान इन्हें न था और न उस समय छपी हुई पुस्तकें ही उपलब्ध थीं, परंतु ग्रह, नक्षत्र और तारों की विद्या ने इन्हें आकर्षित किया। फलत: ताड़पत्रों पर हस्तलिखित, गणित ज्योतिष के प्राचीन सिद्धांत ग्रंथों का इन्होंने अध्ययन आरंभ किया। इन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इन ग्रंथों के कथनों और निरीक्षण से देखी हुई बातों में बड़ा भेद था। अतएव इन्होंने आवश्यक सरल यंत्रों का स्वयं निर्माण किया तथा ग्रहों और नक्षत्रों के उदय, अस्त और गति का, बिना किसी दूरदर्शक यंत्र की सहायता के, निरीक्षण कर अपनी नापों और फलों को उड़िया लिपि तथा संस्कृत भाषा के लिखे सिद्धांतदर्पण नामक ग्रंथों में नियमानुसार क्रमबद्ध किया।

भारतीय ज्योतिषियों में केवल चंद्रशेखर ही ऐसे थे जिन्होंने चंद्रमा की गति के संबंध में स्वतंत्र तथा मौलिक रूप से चांद्र क्षोभ, विचरण और वार्षिक समीकार का पता लगाया। पहले के भारतीय ग्रंथों में इनका कहीं पता नहीं है। इन्होंने और लंबन की अधिक यथार्थ नाप भी ज्ञात की। बिना किसी दूरदर्शक की सहायता तथा गाँव में बनाए, सस्ते और सरल यंत्रों से ज्ञात की गई इनकी नापों की परिशुद्धता की भूरि भूरि प्रशंसा यूरोपीय विद्वानों ने की है।

मॉण्डर (Maunder) के अनुसार यूरोपीय ज्योतिषियों द्वारा आधुनिक, बहूमूल्य एवं जटिल यंत्रों की सहायता से ज्ञात की हुई नापों और इनकी नापों में आश्चर्यजनक अत्यल्प अंतर है। यह अंतर बुध के नाक्षत्रकाल में केवल 0.00007 दिन तथा शुक्र के नाक्षत्रकाल में केवल 0.0028 दिन है। इनकी दी हुई ग्रहों की रविमार्ग (क्रांति वृत्त) से कक्षानति की नाप चाप की एक कला तक शुद्ध है। इन बातों से इनके कार्य की महत्ता का ज्ञान होता है।

ज्योतिष विद्या (फलित और गणित) से ग्रामवासियों की सेवा करते हुए, इन्होंने सारा जीवन गरीबी में साधुओं सा बिताया। ये बालकों के समान सरल स्वभाव के, अति धार्मिक तथा सत्यवादी थे। इन्होंने अपने सारे जीवन का परिश्रम, अर्थात्‌ स्वरचित बृहद्ग्रंथ सिद्धांतदर्पण जगन्नाथ जी को समर्पित किया था और उन्हीं की पुरी में सन्‌ 1904 में इन्होंने मोक्षलाभ किया।

Saturday, 1 July 2017

वर्ग


 किसी भी संख्या का वर्ग करने की बहुत सी सरल विधियाँ होती हैं परन्तु वैदिक गणित में वर्ग करने की यह विधि सबसे सरल विधि है | जो संख्याएँ केवल अंक 1 से बनी हो अर्थात जिन संख्याओं में सभी अंक 1 हो जैसे 1, 11, 111…………………..आदि |  इस सूत्र द्वारा उनका वर्ग करना बहुत ही मजेदार होता है | जैसे किसी संख्या में जितने बार भी 1 आया है उतने ही स्थान तक 1 से लेकर चढ़ते क्रम में लगातार गिनती लिखें व फिर वापिस उतरते क्रम में लिखें जैसे यदि चार बार 1 है यानि संख्या 1111² = 1234321 यही संख्या का वर्ग होगा | आओ नीचे कुछ संख्याओं के उदाहरण द्वारा वैदिक गणित सूत्र को समझने का प्रयास करते हैं |

संख्या                                                                                     वर्ग

1²                                                                                   .         1

11²                                                                                          121

111²                                                                                      12321

1111²                                                                                  1234321

11111²                                                                              123454321

111111²                                                                          12345654321

1111111²                                                                      1234567654321

11111111²                                                                  123456787654321

111111111²                                                              12345678987654321

 

Monday, 27 March 2017

ब्रह्मगुप्त

 देश में जन्मे गणितज्ञों में ब्रह्मगुप्त का स्थान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है | गणित के साथ साथ ये खगोल शास्त्र तथा ज्योतिष में भी पारंगत थे |
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के भीनमाल शहर में ईस्वी सन् 598 में हुआ था।
वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे:
1. ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और
2. खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)
‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है इसके साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है । यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक (negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है ।
ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्णयास्पद समीकरणों ( Nx2 + 1 = y2 ) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाले यह प्रथम व्यक्ति थे |
>ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को एक समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया।
>ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
>ब्रह्मगुप्त पाई (pi) (३.१४१५९२६५) का मान १० के वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना।
>ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है, और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, K y2 + 1 = x2 , को भी हल करने का प्रयत्न किया।

ब्रह्मगुप्त का सूत्र :

ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र:

(\tfrac{p + r}{2}) (\tfrac{q + s}{2})

चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र:

\sqrt{(t – p)(t – q)(t – r)(t – s)}.

जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है।

Thursday, 9 March 2017

।। पाई का मान।।


वृत के परिधि तथा व्यास के अनुपात को पाई के रूप व्यक्त किया जाता है जिसका स्थूल मान 3 है, परिमेय संख्या के रूप में मान   22 /7 तथा 3.1416 है तथा अपरिमेय संख्या के रूप में (10)^½ है। इसकी ऐतिहासिक यात्रा वैदिक काल से प्रारंभ होकर वर्तमान में शोधकर्ताओं के लिए और अधिक शोध करने की प्रेरणा देता रहता है। भारत तथा विश्व के सभी गणितज्ञों वृत के परिधि तथा व्यास के अनुपात में रुचि दिखाई तथा कुछ न कुछ नया खोजने का प्रयास किया है परन्तु भारतीय गणितज्ञों ने गणित के क्षेत्र में जो योगदान दिया वो अविस्मरणीय है।

शुल्व-सूत्रों में वृत-संरचना के लिए अनेक नियम निर्धारित किये गये हैं। उनके अनेक विवरणों से पाई के अनेक प्रायः समतुल्य मान ध्वनित होते हैं। शुल्व-सूत्र के पूर्वोक्त उदाहरण से पाई का मान 3. 004 का अनुमान लगाया गया है। मानव शुल्बसूत्र  ( 1800 ई. पू.) से यह मान 3. 1604 द्योतित हुआ है।
पाई का स्थूल मान 3 के लिए —
यूपावटाः पदविष्कम्भाः।
त्रिपदपरिणाहानि यूपोपराणि।।
                        ( बा. शु. सू. - 4. 112. 13)
अर्थात -
यूप या खूँटे का व्यास 1 पद होने पर उसकी परिधि 3 पद होती है।
इस प्रकार पाई का मान 3 इस स्थूल मान का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है
प्रसिद्ध विद्वान आर्किमिडीज़ ( Archimedes 287 - 212 B. C.) ने इसका मान 22 /7 तथा 223/71 अर्थात 3.1428 तथा 3.1408 के मध्य स्वीकृत किया था।

~ आर्यभट्ट :-
इन सभी विवेचना के बाद विश्व में सबसे सुनिश्चित तथा चार स्थानों तक सर्वथा शुद्ध मान को निर्धारित करने का श्रेय गणित के महाविद्वान आर्यभट्ट ( 476 ई. से 540 ई.) को प्राप्त है -
चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम् ।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत-पारिणाहः।।
                  (-आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक - 10)
अर्थात -
अयुतद्वय या 20000 प्रमाण व्यास वाले वृत की परिणाह या परिधि 1000 में 62 गुणित में 104 में 8 से गुणित संख्या को जोड़ने से प्राप्त संख्या आसन्न होती है। इस प्रकार यह संख्या —
( 1000 × 62) + ( 104 × 8)
= 62000 + 832
= 62832
इस प्रकार परिधि /व्यास के रुप में इसका मान —
पाई = 62832 / 20000
      = 3.1416

~ श्रीधराचार्य :-
श्रीधराचार्य ( 750 ई.) ने अपने परिधि निरुपण के प्रसंग में पाई का मान (10)^½ निरुपित किया है —
वृतव्यासस्य कृतेमूलं परिधिर्भवति दसगुणायाः ।
                     (-त्रिशतिका, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक - 45)
अर्थात -
वृत के व्यास की कृति या वर्ग के 10 से गुणित का वर्गमूल परिधि होता है। इससे यह परिणाम निकलता है कि —
परिधि = { 10 ×( व्यास)²} ^½
अतः पाई { (10)^½} = परिधि /व्यास
कुछ प्रसंग में इन्होंने पाई का स्थूल मान 3 मान कर भी गणनाएं की है।

~ महावीराचार्य :-
महावीराचार्य (814 ई. से 880 ई.) ने भी ठीक इसी प्रकार परिधि का निरुपण करते हुए पाई का मान (10)^½ बताया है —
वृत्तक्षेत्रव्यासो दशपादगुणितो भवेत् परिक्षेपः ।
            (-गणितसारसंग्रह, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक - 60)
अर्थात -
वृताकार क्षेत्र के व्यास को 10 के वर्गमूल से गुणित करने पर उसका परिधि प्राप्त होता है
अन्य प्रसंग में
त्रिगुणीकृतविष्कम्भः परिधिः
                         (-गणितसारसंग्रह, श्लोक - 19)
के द्वारा व्यास के तिगुने को स्थूल परिधि बताते हुए स्थूल रूप से पाई का मान 3 भी स्वीकृत किया है।

~ भास्कराचार्य :-
आर्यभट्ट के पश्चात सर्वप्रथम भास्कराचार्य ने उनके मान के विवरण को संक्षिप्त करके इस रुप में प्रस्तुत किया है —
व्यासे भनन्दाग्निहते विभक्ते खबाणसूर्यैः परिधिः स सूक्ष्मः।
अर्थात -
1250 से विभक्त 3927 संख्या को व्यास से गुणित करने पर उस व्यास की सुक्ष्म परिधि प्राप्त होती है। इससे प्राप्त पाई का मान आर्यभट्ट के विवरण का ही संक्षिप्त रुप है —
पाई = (62832 ÷ 16) / (20000÷ 16)
       = 3927 / 1250
       = 3.1416

उन्होंने अगले चरण में पाई का स्थूल मान इस तरह प्रकट किया है —
द्वाविंशतिघ्ने विहृतेsथ शैलेः स्थूलोsथवा स्याद् व्यवहारयोग्यः ।
                 (-लीलावती, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक - 40)
अर्थात -
7 से विभाजित 22 को व्यास से गुणा करने पर उस परिधि का स्थूल मान प्राप्त होता है। इससे प्राप्त
    पाई  = 22 /7
यह मान आर्किमिडिज के मान की अधिकतम सीमा के रुप में आधुनिक गणित में भी प्रचलित है।

अधोलिखित श्लोक का वर्ण कूटांक की दृष्टि से विचार करें.....
"चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभिपाला।
आनूननून्ननन नुन्न नित्यम्।। "
इसका अभिप्राय है कि " आनूननून्नानन नुन्न नित्यम् "  व्यास के वृत की परिधि " चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभिपाल " होती है।

व्यास  =  1  आनूननून्नानन नुन्न नित्यम्
                 000000, 000, 01
परिधि  =   चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभि पाल
                  6 3 5   6 2    9 5 1 4   1 3

पाई = परिधि /व्यास
       = 31415926526 /10000000000
       = 3.1415926526
अर्थात - दशमलव के दस अंक तक पाई का मान इस श्लोक में दिया गया है।

~माधवा ( 1340 ई. - 1425 ई.)
14वीं शताब्दी के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री तथा गणितज्ञ माधवा जिनका जन्म केरल के संगमग्राम (आधुनिक ईरिन्नालाक्कुट्टा) में 1340 ई. में हुआ था —
इनके द्वारा पाई का मान दशमलव के ग्यारह अंकों तक शुद्ध पाया जाता है —

    2827,43,33,88,2333 ÷ 900,00,00,00,000

    = 3. 1415926535922

~शंकर वर्मा ( 1774 ई. - 1839 ई.)
आपने कटपयादि वर्ण कूटांक के प्रयोग द्वारा पाई का मान दशमलव के 17 स्थान तक याद रखने के लिए अपनी रचना "शाद्रत्नमाला" में वर्णन किया है -
भा ( 4) द्रा (2) म्बु (3) धी (9) सी ( 7)
दद्धा ( 9) जा ( 8) नम् (5) गा (3) नी ( 5)
ता ( 3) स्रा ( 2 ) दद्धा ( 9)  स्म ( 5) याद (1)
भू ( 4) पा (1) गीः (3)

पाई = 3. 14159265358979324

~भारती कृष्ण तीर्थ ( 1884 ई. - 1960 ई.)
गोवर्धन पीठ, पूरी के 143 वें शंकराचार्य जगत गुरु स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ जी महाराज जिनका जन्म 14 मार्च 1884 ई. को हुआ जिन्होंने वर्ण कूटांक का प्रयोग कर पाई  का  निकालने का सर्वाधिक सरल तथा रोचक श्लोक प्रस्तुत किया —
पाई /10 का मान :- वर्ण कूटांक का प्रयोग से पाई के 32 अंक तक के मान के लिए श्लोक।

।।  गोपीभाग्यमध्रुव्रात श्रंगिशोदधिसन्धिग।
3  1  4  1  5  9  2  6  5  3  5  8  9  7  9  3
      खलजिविताखाताव गलहालारसंधर।।
2  3  8  4  6  2  6  4  3  3  8  3  2  7  9  2

पाई /10 =

0.31415926535897932384626433832792

इस प्रकार पाई का 32 अंक तक प्राप्त करने के लिए यह श्लोक जिसका पहला पद भगवान् कृष्ण की स्तुति तथा दुसरा पद भगवान् शिव स्तुति एवं पूर्ण श्लोक गणितशास्त्र में पाई का मान सरलता से याद रखने का अद्भुत तरीका है।

Tuesday, 28 February 2017

कपाट-संधि

।। कपाट-संधि ( Kapata-Sandhi) - एक गुणन प्रक्रिया।।
श्रीधराचार्य (जन्म : ७५० ई) प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ थे। इन्होंने शून्य की व्याख्या की तथा द्विघात समीकरण को हल करने सम्बन्धी सूत्र का प्रतिपादन किया।उनके बारे में हमारी जानकारी बहुत ही अल्प है। उनके समय और स्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा अनुमान है कि उनका जीवनकाल ८७० ई से ९३० ई के बीच था; वे वर्तमान हुगली जिले में उत्पन्न हुए थे; उनके पिताजी का नाम बलदेवाचार्य औरा माताजी का नाम अच्चोका था।
अंकगणित में चार प्रकार की गुणन प्रक्रिया का रचना आपके द्वारा किया गया है —
(क) कपाट-संधि
(ख) तस्थ
(ग) रूप विभाग
(घ) स्थान विभाग
प्रस्तुत लेख में हम सिर्फ कपाट-संधि की ऐतिहासिक यात्रा की चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम कपाट-संधि के माध्यम से गुणन करने की प्रक्रिया अरब वासियों ने हम भारतीयों से सीखा,
सन् 825 ई. में अल-ख्वारिज़मी,
सन् 1025 ई. अल-नसावी ने इसे भारतीय पद्धति ( अल-अमल अल-हिन्दी या तारीक अल-हिन्द ) का नाम दिया,
सन् 1175 ई. में अल-हश्ज़ार तथा अल-कालासदी ने इस गुणन विधि को सीखा।
अरब में यह गुणन प्रक्रिया "शबख" के नाम से प्रचलित हुआ जिसका शाब्दिक अर्थ है धातु की जाली।
सन् 13 वीं शताब्दी में यूनान के धर्म प्रचारक मैक्सिमस प्लेन्यूड्स ने इस गुणन प्रक्रिया को यूरोप तक पहुँचाया।
14 वीं शताब्दी में यूरोप में कपाट-संधि गुणन प्रक्रिया गिलोसिया ( Gelosia) के नाम से काफी प्रसिद्ध हुआ जिसका इटली भाषा में अर्थ धातु की जाली होता है।
उदाहरण (1)
135 × 12 = 1620
उदाहरण (2)
7695 × 543 = 4178385
अभ्यास
(1) 257 × 23
(2) 3648 × 476
(3) 7867 × 4268
(4) 5.35 × 2.4
(5) 47.26 × 1.45
(6) 7.824 × 2.67
(7) 8.957 × 25.4
(8) 45.25 × 78.56
(9) 0.0265 × 0.25
(10) 0.758 × 0.005

Saturday, 25 February 2017

भारतीय गणितज्ञ-नारायण पंडित

।। भारतीय गणितज्ञ-नारायण पंडित (01) ।।
केरला के महान गणितज्ञ जिनका कार्यकाल 1325 ई. से 1400 ई. के बीच रहा। इनके पिता का नाम नरसिम्हा था। आर्यभट्ट तथा भास्कराचार्य - ।। से प्रभावित हो कर गणित के विभिन्न क्षेत्रों में अनुपम योगदान दिया, इन्होंने अंकगणित, बीज-गणित, ज्यामिती, जादूई-वर्ग इत्यादि अनेक विषयों पर कार्य किया है। सन् 1356 ई. में इन्होंने गणित कौमुदी की रचना की साथ ही भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा रचित लीलावती के उपर टिप्पणी 'कर्मप्रदीपिका' की रचना की।
विभिन्न क्षेत्रों में आपके द्वारा किये गये कुछ कार्य —
   ~ अंकगणित —
इसके अन्तर्गत आपने वर्ग करने की नई विधि की रचना की थी
  (i)  P² = (p + q)² = p² + q² + 2pq 
       (24)² = (20 + 4)²
                 = 20² + 4² + 2×20 × 4
                 = 400 + 16 + 160
                 = 576
  (ii) N² = (N - a) (N+ a) + a²
       (24)² = ( 24 - 4) ( 24+ 4) + 4²
                 = 20 × 28 + 16
                 = 576
इसके अलावा गुणन के प्रक्रिया को कपाट-संधि विधि से बताया।
   ~ बीज-गणित —
         - आर्यभट्ट की कुट्टक प्रक्रिया पर विस्तार से कार्य किया।
         - भास्कराचार्य - ii के चक्रवाल पद्धति Nx² + 1 = y² पर भी विस्तृत चर्चा की
        - नारायण पंडित की गुणनखण्डन प्रक्रिया जोकि आजकल हम फरमेट गुणनखण्डन विधि के नाम से जानते हैं।
  ~ ज्यामिती —
इस विषय के अन्तर्गत आपने चक्रीय चतुर्भुज, त्रिभुज का क्षेत्रफल, अंकपाश, मत्स्य मेरु, इत्यादि विषयों पर कार्य किया है।
~ जादूई-वर्ग —
इस विषय पर आपने
पद्मा हर छोटे वर्ग के चार पत्रों में 8 संख्या इस प्रकार रखें कि कुल योग 132 हो ,
वाजरा में 8 संख्या को एक ही काॅलम में प्रत्येक वर्ग ऊर्ध विकर्ण में इस प्रकार रखें कि योग 132 हो,
शादसरा (षट्भुज) हर समूह में 8 संख्या इस प्रकार है कि कुल योग 294 है।
इस तरह की अनेक जादूई-वर्ग का निर्माण बहुत ही सुन्दरता से आपने भद्र-गणित में किया है।
आपके द्वारा तैयार किया गया एल्गोरिदम का प्रयोग गणित के साथ साथ कम्प्यूटर के प्रोग्रामिंग लैंग्वेज C, C++ में किया जाता है।

Wednesday, 4 January 2017

प्राकृतिक संख्याओं का योग

प्राकृतिक संख्याओं का योग (Sum of natural numbers) :-
—संकलित या अंकयुक्ति
इसके अन्तर्गत 1 तथा उसमें क्रमशः 1 जोड़ने पर प्राप्त संख्याओं के योग का नियम बताया है।
इसके लिए सर्वप्रथम (initially) श्रीधराचार्य का सूत्र इस प्रकार है —
सैकपदाहतपददमेकादिचयेन भवति संकलितम् ।
                                    (—त्रिशतिका, पृष्ठ - 23)
अर्थात :-
1 सहित अन्तिम (last) पद (term) या संख्या (n) को अंतिम संख्या से गुणा करें तथा उसका दल या द्विभाग करें।
इससे 1 तथा उसके साथ क्रमशः 1 को जोड़ने से प्राप्त संख्याओं का संकलित या जोड़ प्राप्त होता है।
इस नियम को भास्कराचार्य ने इन शब्दों में प्रकट किया है —
सैकपदघ्नपदार्धमथैकाद्यंकयुतिः किल संकलिताख्या ।
                    (—लीलावती, श्रेढ़ी व्यवहार, श्लोक - 1)
अर्थात :-
1 से जुड़कर बनने वाली क्रमिक संख्याओं के योग के लिए उस श्रेढ़ी के अंतिम पद (n) में जोड़ कर पद को आधे (half) से गुणा करना चाहिए।
इसे संकलित कहते हैं।
इस विवरण से इसके लिए यह सूत्र प्राप्त होता है —
1 + 2  +  3  +  4  + 5   +  - - - + अंतिम पद (n)
का योग  =  ½ × n × ( n + 1)
उदाहरण :-
इस नियम के अनुसार 1 से 10 तक के संख्याओं का योग इस प्रकार होगा यहाँ अंतिम पद (n) = 10 है।
1 +  2  + 3 + - - - + 10 = ½ × 10 × ( 10 + 1)
                                      = 5 × 11
                                      = 55 (उत्तर)